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Showing posts from February, 2018

आंगन का वो दरख़्त

आंगन का वो दरख़्त अब गर्मियों में छांव नहीं देता था और सर्दियों की धूप भी तो छन छन के आती थी इसलिए काट डाला गया। हां और अब  मोहल्ले भर के लोग अपना सुख दुःख कहने भी नहीं आते थे। कुछ दिन में सबको आदत हो जाएगी उसके ना होने की। वैसे आजकल समय भी कहां है सुख दुःख कहने का, कुछ चुगलिंयां करने जरूर आते थे,या चापलूसी करने आते थे, और खुद को सत्यवादी से कम कोई नहीं समझते। हां कुछ बच्चे नटखट बचपन लिए जरूर याद करेंगे अपने प्यारे साथी को । आजकल उस दरख्त सी हो गई रिश्तों की दशा भी कब किस रिश्ते को कौन उखाड़ फेंके, ये तो फिर भी एक दरख़्त था.... अपने समय का सबसे शानदार दरख़्त ।

एक सत्य

एक सत्य ये भी जीवन का... जाना पहचाना, कुछ कुछ उलझा सा... कभी मैं सत्य के पीछे भागती हूँ... कभी सत्य मेरे पीछे भागता है... फिर भी ना मैं सत्य तक पहुंच पाती हूँ... ना सत्य मुझ तक पहुंच पाता है... हम जानते हैं एक दूसरे को... फिर भी जारी रहेगा ये खेल... आखिरी सांस तक...