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Showing posts from September, 2018

चलो एक पुल बनाते हैं

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चलो एक पुल बनाते हैं दिलों की दूरियों को मिटाते हैं रिश्तों को फिर से निभाते हैं चलो एक पुल बनाते हैं कुछ शिकायतें तुम भूल जाओ कुछ गिले मैं भुला दूँ दो कदम तुम चलो चार कदम मै चलूँ मैं और तुम का भेद मिटाते है चलो एक पुल बनाते हैं कुछ कहानियां तुम सुना दो कुछ किस्से मैं बताऊँ तुम शब्द बन जाओ, मैं अर्थ बन जाऊं जीवन संगीत सुनाते हैं चलो एक पुल बनाते हैं मेरी अच्छी बातें तुम रख लो तुम्हारी अच्छी यादें मैं रख लूँ तुम थोड़ा मैं बन जाओ, मैं थोड़ा तुम बन जाऊं नज़र अलग पर नज़रिया एक बनाते हैं चलो एक पुल बनाते हैं चलो एक पुल बनाते हैं दिलों की दूरियों को मिटाते हैं रिश्तों को फिर से निभाते हैं चलो एक पुल बनाते हैं ... Durga

कविता बन जाना चाहती हूं मैं!

कविताएँ पसंद हैं मुझे! नहीं होती उनमें, कहानियों की तरह, लंबी लंबी भूमिकाएं! कहीं से भी आरंभ हो सकती है, और कहीं पर भी समाप्त! जैसे जीवन होता है! हां ऐसी ही, कविता बन जाना चाहती हूं मैं! कविताएँ पसंद हैं मुझे! इनमें नहीं होती बंदिसें, नहीं जोड़ने पड़ते, बेवजह के पाठ! ये निर्भर नहीं सम्पूर्ण है! हां ऐसी ही, कविता बन जाना चाहती हूं मैं! कविताएँ पसंद है मुझे! ना सुखांत चाहती ये, ना दुखांत की चिंता! अपने आप में, हर रूप में, हर पंक्ति, लगती सार्थक सी! हां ऐसी ही, कविता बन जाना चाहती हूं मैं! कविताएँ पसंद हैं मुझे , विस्तृत का मोह नहीं, संक्षेप में भी दोष नहीं! अर्थहीन कुछ भी नहीं, विराम सही, फिर भी निरंतरता! हां ऐसी ही, कविता बन जाना चाहती हूं मैं! कविताएँ पसंद हैं मुझे ! चाहे कविता का ज्ञान नहीं, क्या लिखती, इसका भी ध्यान नहीं! शब्द भले ही मौन हों, किन्तु संवाद मन तक पहुंचे! हां ऐसी ही, कविता बन जाना चाहती हूं मैं ! ... Durga

बचपन अपना

सुबह सवेरे उठ जाना उठकर खूब धूम मचाना साथी मिले जो कोई अपना थोड़ा हंसना थोड़ा हंसाना मस्ती की बारिश में भीगना सारे घर में दौड़ लगाना क्या अजब था वो जमाना कहते हैं जिसको बचपन अपना खुश होकर पढ़ने जाना थोड़ा पढ़ना थोड़ा लड़ना लौट फिर घर को आना सबको दिन की बात बताना शाम हुई तो खेलना कूदना फिर दादी से कहानियाँ सुनना क्या अजब था वो जमाना कहते हैं जिसको बचपन अपना बिना बात के रूठ जाना फिर अगले ही पल मान जाना न किसी की चिंता करना अपने में ही खोए रहना तितलियों के पीछे जाना पंछियों से बातें करना क्या अजब था वो जमाना कहते हैं जिसको बचपन अपना जीवन लगता है एक सपना जाने कब बीत गया बचपन अपना

वो गरीब

वो रोज बिखरे जीवन को समेट, उम्मीद की नाव पर चढ़, मेहनत के चप्पू थामे, घर से निकलता है! वो रोज थकता, हारता, किस्मत से दो दो हाथ करता, उम्र को पीछे छोड़, बहुत दूर निकल जाता है! वो रोज लहरों से जूझता, तूफानों से उलझता, सुबह से शाम, शाम से सुबह, बस सफ़र करता, मंजिल तक नहीं पहुंचता है! वो एक "गरीब" उसका सफर, एक सपने से, दूसरे सपने तक, बस!

सरहद पार वाला दुश्मन

सरहद पार वाला दुश्मन, कायर, कमजोर बहुत है वो! इतरा के गफ़लत में यूँ ही, कुछ भी बोल रहा वो! सामना हक़ीक़त का करे कैसे, यही बस दिन रात सोच रहा है वो! शायद इसलिए ही वर्षों से, सपनों में ही खुश हो रहा है वो! युद्ध भूमि बच्चों का खिलवाड़ नहीं, ये भी बखूबी जानता है वो! इसलिए दो कदम आगे रखता, चार कदम पीछे भागता है वो! जब भी हिंद के शेरों से पड़ जाता पाला, तब-तब रात-रात भर रोता रहता है वो! अपनी रोनी नापाक सूरत को फिर भी, दूध का धुला पाक कहता है वो! 

ज़िन्दगी हर पल

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हर पल बदलती ज़िन्दगी कभी खुशी कभी गम कभी डर और कभी भ्रम बस यही एहसास सही कि ज़िन्दगी सपना नहीं एक हकीकत है जिसे जीना है हर हाल में बदलना है अपने अनुसार ढालना है अपने रंग में ... Durga