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Showing posts from May, 2018

फाउंटेन पेन

मेरी ज़िन्दगी की बेहतरीन यादों में से एक फाउंटेंन पेन। फाउंटेन पेन मुझे हमेशा बहुत अच्छे लगते हैं। कहीं भी दिख जाएं तो मेरा ध्यान खींच ही लेते हैं। एक छोटी सी घटना जब मैं और मेरी बहन तीसरी कक्षा में पढ़ते थे तब की मुझे याद आती है। उन दिनों बांस की कलम से या होल्डर पेन से लिखने की अनुमति होती थी। डॉट पेन और फाउंटेन पेन दिख जाए किसी बच्चे के पास तो सजा तो मिलती ही थी साथ में पेन भी जब्त हो जाया करते थे। पता नहीं बाद में वापस ले भी सकते थे या नहीं ये जानने की कोशिश नहीं की कभी। तो हुआ यूं कि पापा के पास बहुत सुन्दर फाउंटेन पेन थे उनमें से मैंने और बहन ने एक एक रख लिए शायद इसलिए क्यूँकि पापा की लिखावट बहुत सुन्दर है और हमें लगता था उस पेन से हमारी भी लिखावट सुन्दर हो जाएगी। मेरे पास काले रंग का सुंदर पेन था। अगले दिन पेन लेकर पहुंच गए स्कूल और कक्षा में पकड़े गए पेन से लिखते हुए। बस फिर हथेली पर एक दो बांस की छड़ी पड़ी और पेन टीचर ने अपने पास अपने बैग में रख लिए। पूछने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाए कि पेन ले सकते हैं वापस कि नहीं। मुझे मारा खाने का बुरा नहीं लग रहा था मगर पेन खोना बहुत बुर

राम बाल्मीकि संवाद

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रामायण आदि कवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत का प्रथम महाकाव्य। रामायण पूजनीय और जीवन का आधार है। राम की महिमा भला बाल्मीकि से ज्यादा सुंदर और स्पष्ट कौन समझा सकता है।  महर्षि बाल्मीकि ने राम के चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर, श्री हरि के परम भक्त  नारद जी की प्रेरणा से  अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की। लेकिन प्रभु की इच्छा से ही सब काम होते हैं इसलिए राम चरित मानस की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने की और राम कथा का प्रसाद पाना और अधिक सरल हुआ। तुलसीदास को महर्षि बाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। बाल्मीकि हों या तुलसीदास राम की कृपा तो उसी पर होती है जो सहज, सरल, कपट से दूर होते हैं । युग समय सबसे परे है प्रभु की कृपा इसलिए ही तुलसीदास को दर्शन देने स्वयं आए प्रभु। चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥ गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस के अयोध्याकांड में एक बड़ा सुन्दर प्रसंग आता है श्री राम-वाल्मीकि संवाद। अपने वनवास काल के मध्य श्री राम वाल्मीक ऋषि के आश्र

एक ख़त पहाड़ के नाम

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ऐसा  लगता है मुद्दत हुई ख़ुद से मुलाकात हुए, ऊंचे पहाड़, और चीड देवदार से बात हुए। एक अरसा बीत गया, मेरे पहाड़ तेरी मिट्टी को छुए हुए। मुझे याद है, गांव से ये कह कर निकला था, कि क्या रक्खा है मां तेरे इस पहाड़ में, उबड़ खाबड़ रास्तों में, इस पत्थर के पुराने मकान में। मैं बस शहर की तरफ ऐसे खिचां आया, जैसे चुमंबक की तरफ लोहा खिंचा जाए। सपनों में जीना था, या झूठे सपनों को जीना था, आज भी समझ नहीं पाया। शायद उड़ना जो था आधुनिकता की उड़ान में। सुना था शहर सबको अपना लेते हैं, मगर ये नहीं सुना था कि शहर सपना भी चुरा लेते है। एक नई पहचान बनाने निकला था, मगर देखा यहां भीड़ बहुत है, इंसान ही गुम हैं। मेरे पहाड़ मैं तुझसे मीलों दूर तो निकल आया, मगर एक दिन भी भूल नहीं पाया। तेरे हरे भरे जंगल और घास के मैदान, सांय सांय कर तुझमें से बहती वो हवा, नहीं भूल पाया मैं, ऊंचे पेड़ों पर लाल मोती से लगे वो रसीले काफल, सुर्ख लाल किलमोडी का रंग, और वो नारंगी पीले हिसालू का स्वाद। अखरोट के छिलकों का वो रंग भी बहुत अच्छी तरह याद है, जो हाथों पर चढ़ जाता था और तब बहुत चिढ़ होती थी म