Posts

Showing posts from July, 2018

डायरी का वो मुड़ा पन्ना

डायरी का वो मुड़ा हुआ पन्ना... जिस से पहले के सारे पन्ने, बखूबी अपनी जगह पर है, बिना किसी सिलवट के! और रचे गए हैं उनमें क्रम वार, कई कहानियां, किस्से, और दर्ज है सहेलियों की हँसी ठिठोली मेले, दुकानें, झूले, फूल, तितली,पंछी, नदी, तालाब, झरने, किताबों की बातें, बचपन की यादें, सब तो लिखा गया है! स्कूल के बीते हुए दिन, कॉलेज की दिनचर्या , और मासूम प्यार के मासूम किस्से सब तो मौजूद है! डायरी का वो मुड़ा हुआ पन्ना... जिसके ठीक पहले पन्ने पर दिखते हैं, दुनियाँ से ख़ुद का परिचय करवाने के बुलंद हौसले, पंख नई उड़ान के! और दिखती हैं, अपने ख़याल और ख्वाबों की दुनियाँ को, हकीकत में उतारने की कई तरकीबें! कई वर्षों की मेहनत का सफरनामा है वो डायरी! ज़िन्दगी का हर मोड़, साफ सीधा पन्ने पर मौजूद है! मगर शायद कुछ अटक गया था, तभी वो पन्ना मोड़ा गया था! और उस से आगे, वैसा भी ना लिखा गया जैसा पहले लिखा था! डायरी का वो मुड़ा हुआ पन्ना... वहीं पर रह गया एक डरा सहमा सा ख्वाब, शायद कभी कभी मुड़े हुए कोने से झांकता होगा, मगर फिर दुबक कर छिप जाता होगा, वही उसी मोड़ के भीतर!

वादा

शाम का वक़्त नदी का वो किनारा सूर्य की लाली करती जैसे वादे कल फिर मिलेंगे वादों की बातें बातें देती उम्मीदें टूटते वादे फिर वादों की बातें यूँ ही जीवन बीते 

हाइकु सावन

Image
1-  वर्षा संगीत      नाचता मन फिरे       बन मयूर 2-  हरे पत्ते पे       बारिश की ये बूँदें      मोती हों जैसे 3-  कागज नैया      बारिश का ये पानी       यादें सुहानी 4-  सावन आया       टिप टिप की धुन       मन तू सुन  ' 5-  बारिश बन      रहमत उसकी       बरस रही 6-    पानी बरसा        हर्षित मन मेरा       गा रहा गीत      ... Durga       

सरल बनिए

Image
सरल बनिए, सहज बनिए, नदी सा निरंतर बहते रहिये! माना कि मुश्किल बहुत है, समझा जाना सरल स्वभाव, लेकिन किसी तूफान बनने से बेहतर है!

अरे मन मेरे

अरे मन मेरे... तू क्यूँ करता रहता है, ज़िन्दगी का हिसाब किताब! कभी जोड़ लेना चाहता है खुशियों को, कभी चिंता ग़मों को घटाने की! जबकि पता है, रहना तो अंत में केवल शून्य है! कभी तमन्नाओं को गुणा करता, उदासियों को भाग देता कभी! जबकि पता है, रहना शेष तो शून्य ही है! तू क्यूँ करता रहता है, ज़िन्दगी का हिसाब किताब! रोज नए समीकरण, लागू करता ज़िन्दगी पर! रोज पाइथागोरस प्रमेय की तरह, ख़ुद से कहता इति सिद्धम! तो क्या वाकई सिद्ध हो चुका? अगर नहीं, तो फिर क्यूँ करता रहता, ज़िन्दगी में ये गणितीय प्रयोग! ज़िन्दगी का गणित ये कहता है, बस जो पल मिले वही जीवन है! शून्य ना होकर भी शून्य रहना है, हर हाल में नदी सा निरंतर बहना है! शून्य से जन्मे, शून्य में ही जाना है फिर क्यूँ जीवन भर, शून्य हो जाने से ही डरना है! शून्य में आनंद, एहसासों का शून्य हो जाना है! फिर शून्य हो जाने से भागना, क्या ख़ुद से भागना नहीं? ... Durga

बचपना जिंदा रखिए

हम जो जानते हैं वो मानते नही, जो मानते हैं उसे जानते नहीं और ना ही जानने की कोशिश करते है। इसी जानने और मानने के अंतर ने ही सारा बवाल किया रहता है। अक्सर बच्चे हमेशा कोई भी चीज़ देख कर कई सवाल करने लगते हैं क्यूँकि वो उसे जानना चाहते हैं, बिना जाने अपनाने को उनका मन नहीं मानता। उनके लिए वही सच है जो हम उन्हें बताते है, अब ये हम पर निर्भर करता है कि उनकी बातों पर ध्यान दें और सही जवाब दें या फिर उनके सवालों को अनसुना कर दें और उनको भी अपनी तरह उलझन में रहने दें। बड़ों की दुनियाँ में सब बातें बड़ी हो जाती हैं। हम ऐसे सोचते हैं जैसे कि हम सब जानते हैं और कुछ समझने को बचा ही नहीं। हम जो सोच लेते हैं, जो जानते हैं उसके झूठ होने को स्वीकार आसानी से नहीं कर पाते। कहीं हमें कोई और ये ना कह दे कि आप गलत हो, हम गलत होने से डरते हैं। हम गलत होने को अपनी हार समझ लेते हैं इसलिए हम ना सवाल करते हैं ना जवाब देते हैं। हम गलतफ़ह्मी में जीने के आदी हो जाते हैं और आस पास रच देते हैं नकली दुनियाँ। आप अब भी नहीं मानते ना... यकीन कीजिए हम ज्यादा ही बड़े हो गए हैं, दिल में कहीं कुछ तो बचपना ज़िंदा रखि

खत्म होता बचपन

एक हम थे कि स्कूल से लंच टाइम में भी मार्केट जा के टॉफ़ी, अमियां ले के खाते हुए वापस स्कूल पहुंच जाते थे ब्रेक खत्म होने से पहले! और एक आजकल का टाइम है कि स्कूल में कब बच्चा पहुंचा, कब छुट्टी में निकला स्कूल से सब जानकारी मोबाइल पर मैसेज से आ जाती है! इतना होने के बाद भी बच्चे सुरक्षित हैं नहीं! जरूरी भी है आजकल के दूषित माहोल के हिसाब से! आखिर आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है! मगर सोचने की बात ये है कि कोई ऐसे कारण भी हैं क्या जो जबर्दस्ती के थोपे हैं हमने खुद के दिमाग पर, और बचपन खोने लगा है वक़्त से पहले! आजकल के बच्चों को देखकर लगता है कि स्कूल नहीं किसी प्रोफेशनल एक्टिविटी के लिए जा रहे हैं! बच्चों के  बचपन में बचपना उतना रह नहीं गया जितना होना चाहिए! तमाम तरह की बंदिसे,कई तरह के डर सब मिलाकर बचपन चोरी हो चुका है! वर्गों में बांटा गया हमारा समाज ख़ुद को दूसरे वर्ग से सभ्य बताते लोग सभी तो दोषी हैं! पढ़ाई का बोझ और फिर जबर्दस्ती अपने सपने उनसे पूरे करवाने का जुनून ये भी तो बचपन चुराने का दोषी है! अमीरों की सोसाइटी का घमंड और गरीबों की सोसाइटी की मजबूरी यही समस्या है! हम जब छोटे थ

मैंने पढ़ा है

मैने पढ़ा है विज्ञान मगर मैं उतना ही विज्ञान समझना चाहती हूं जहां तक वो प्रेम को परिभाषित ना कर पाए। मैंने पढ़ा है गणित मगर मैं उतना ही गणित समझना चाहती हूं जहां तक प्रेम को किसी समीकरण में ना उलझाए। मैंने पढ़ा है भूगोल, इतिहास मगर मैं उतना ही भूगोल, इतिहास समझना चाहती हूं जहां तक प्रेम को निश्चित समय और काल में ना रखा जाए। मैंने पढ़ा है अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र मगर मैं उतना ही अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र  समझना चाहती हूं जहां तक प्रेम को फायदे नुकसान में ना तोला जाए, और किसी के जज्बात को धर्म जाती के नाम पर ना टटोला जाए। चेहरे पढने से पहले मैंने पढ़ी हैं कई किताबें मगर मैं उतना ही किताबी होना चाहती हूं जितना कि मेरा मन किसी मासूम की हंसी और बेगुनाह के आंसू को समझ पाए।