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Showing posts from January, 2018

आहिस्ता से चल ऐ ठन्डी हवा

आहिस्ता से चल ऐ ठन्डी हवा... तेरी हर लहर कुछ कहती है... जरा सुनने दे वो तराना... थोडा जी लेन दे वो गुजरा जमाना... तू अपने साथ ले आती है कितनी बातें... कुछ कही, कुछ अनकही... कई ख्याल, और कई सपने... आहिस्ता से चल ऐ ठन्डी हवा... मैं कुछ पल आंखें मूंद कर... जी लूं फिर वही ख्याल, वही सपने... कर लूं अनकही बातें पुरानी... तेरा यूं आहिस्ता बहना... दे जाता है मुझे... बीते हुए मासूम पल और नईं सांसें... 

अग्नि त्रेतायुग की

एक अग्नि प्रज्वलित हुई थी त्रेता युग में... कोई यज्ञ की अग्नि नहीं थी... और ना ही थी किसी प्रकाश पुंज से प्रकाश हेतु निकली अग्नि... ना ही थी अक्षम्य अपराध के लिए दंड स्वरूप लगाई गई आग... ये अग्नि की ज्वाला थी परीक्षा के लिए उत्पन्न की गई... एक नारी के स्वाभिमान को चूर करने का असफल प्रयास... किसने किया था प्रश्न... किसने लगाई आग... राम तुमने?... नहीं नहीं तुमने नहीं.. तुम स्वयं नारायण... मर्यादा पुरुषोत्तम... नहीं नहीं तुमने कदापि नहीं... परन्तु राम उस अग्नि परीक्षा की आग इस कलयुग तक शान्त नहीं हो पाई... उस आग को हवा देने वाले जीवित हैं... असल में ये परीक्षा सीता की थी ही नहीं.. ये परीक्षा तो थी समाज में मौजूद तुच्छ मस्तिष्क वालों की... जो अपने मस्तिष्क की गन्दगी को मारते हैं साफ दामन पर... और चकना चूर कर देना चाहते हैं किसी भी नारी का आत्मसम्मान... लेकिन राम सीता ना तब हारी थी ना आज हारती है... क्योंकि जो अग्नि परीक्षा के कारक थे... वही दोषी थे... ये उन्हीं की परीक्षा थी तब भी... आज भी...

हर हर

देश काल वस्तु रूपी परिछेद से रहित.. सातों स्वरों में निवास करने वाले... शून्य से परे,शाश्वत ... हे महादेव, देख रहे हो ना जीवन का व्यथित होना ... देख रहे हो ना आत्मा का परमात्मा से विलग होना... हे आनंद स्वरूप अशांत होती पृथ्वी और अशांत जीवों को देख रहे हो ना... शीश पर चंद्र धारण करने वाले हे शशिशेखर... क्या महसूस कर रहे हो उस उष्मा को जो मनुष्य के ह्रदय में बसने वाले स्नेह को भष्म करने पर आतुर है... क्या सुनाई दे रही है तुम्हे निर्दोषों की पीडा के स्वर जो शायद तुम्हारे डमरू से अधिक ऊंचे स्वर में गूंज रहे हैं, हे डमरूधर... विषैले सर्पों को तुम नित्य धारण करते तो हो हे भुजंगभूषण... लेकिन क्या वो इस पृथ्वी पर बसे मनुष्यों से अधिक कुटिल, विषैले हैं... तुमने तो विष पीकर कंठ में धारण किया परोपकार के हित, तब नील कंठ कहलाए... पर स्वार्थ मे लिप्त धरतीवासी इतना विष पी रहे कि हृदय रंगहीन हो चुके हैं... हे कामारी, अब कामान्ध हो चुके नर नारी, मर्यादा का अब भान कहां ... तुम्हें दिखता तो होगा ना हे सहस्राक्ष... सुनाई तो देता होगा ना, गंगा का करूण रुदन, हे गंगाधर... हे पिनाक,प्रशस्त,

तू और मैं

तू विशाल समन्दर सा है, अन्तहीन मैं किसी नदी का बस एक किनारा तू बसन्त सा खिला खिला पहाडों में मैं पतझड़ की पगलाई धूप सी तेरी बातें सावन की निर्मल फुहारें मेरी बातें गर्मी की उदास दोपहरी फिर भी मेरा वजूद तुझसे जिन्दा और तेरा वजूद मुझसे  जिन्दा