राम बाल्मीकि संवाद
रामायण आदि कवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत का प्रथम महाकाव्य। रामायण पूजनीय और जीवन का आधार है। राम की महिमा भला बाल्मीकि से ज्यादा सुंदर और स्पष्ट कौन समझा सकता है। महर्षि बाल्मीकि ने राम के चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर, श्री हरि के परम भक्त नारद जी की प्रेरणा से अपने महाकाव्य "रामायण" की रचना की। लेकिन प्रभु की इच्छा से ही सब काम होते हैं इसलिए राम चरित मानस की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने की और राम कथा का प्रसाद पाना और अधिक सरल हुआ। तुलसीदास को महर्षि बाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। बाल्मीकि हों या तुलसीदास राम की कृपा तो उसी पर होती है जो सहज, सरल, कपट से दूर होते हैं । युग समय सबसे परे है प्रभु की कृपा इसलिए ही तुलसीदास को दर्शन देने स्वयं आए प्रभु।
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस के अयोध्याकांड में एक बड़ा सुन्दर प्रसंग आता है श्री राम-वाल्मीकि संवाद। अपने वनवास काल के मध्य श्री राम वाल्मीक ऋषि के आश्रम में भी गये थे। इससे यह बात स्पष्ट है कि बाल्मीकि राम के समकालीन थे इसलिए राम के जीवन की हर घटना का ज्ञान उनको था।
श्री राम पिता की आज्ञा से वनवास सहर्ष स्वीकार कर , माता जानकी और लक्ष्मण सहित बाल्मीकि आश्रम पहुचे।
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥
प्रभु का मन आश्रम आते समय जो जो सुन्दर दृश्य देखे थे उस से बहुत प्रसन्न था। सुन्दर फूल,पहाड़ और शीतल निर्मल जल देखकर माता सीता और लक्ष्मण भी बहुत आराम महसूस कर रहे थे। वहां विभिन्न प्रकार के पशु पक्षी बिना बैर भाव विचरण कर रहे थे। चारों ओर प्रसन्न और सुगंधित वातावरण था।
प्रभु के आगमन का संदेश सुनते ही मुनि बाल्मीकि उनको लेने पहुचें। भगवान के दर्शन पाकर मुनि बाल्मीकि के ह्रदय और नेत्र शीतल हुए। राम दंडवत प्रणाम करते हैं और बाल्मीकि आशीर्वाद देते हैं। कितने सहज सरल हैं प्रभु कितने मर्यादित। किसके नेत्र शीतल ना हों प्रभु की इस निर्मल छवि देख कर।
बाल्मीकि जी ने उन्हें कंद,मूल फल खाने को दिए तत्पश्चात उनको विश्राम करने के लिए सुंदर स्थान बताया। यहां से अतिआनंद दायक बाल्मीकि राम का संवाद आरंभ होता है। राम और बाल्मीकि दोनों ही महान, त्रिकालदर्शी हैं, दोनों एक दूसरे को जानते हैं लेकिन दोनों कितने सरल और मृदुभाषी हैं कि एक दूसरे को सुंदर वचनों में प्रसंशा कर रहे हैं।
बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥
मुनि श्री रामजी के पास बैठे हैं और उनकी सुंदर छवि नेत्रों से देखकर बाल्मीकि जी को आनंद प्राप्त हो रहा है। तब श्री रघुनंदन कमल सदृष्य हाथों को जोड़कर, कानों को आनंदित करने वाले मधुर वचन कहे। हे मुनिनाथ आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। फिर प्रभु ने वनवास होने की कथा विस्तार से बताई। राम बोले हे मुनिराज आज आपके चरणों के दर्शन हो गए, हमारे पुण्य सफल हो गए। अब आप हमें वो स्थान रहने को बताइए जहां से किसी ब्राह्मण या मुनि को कष्ट ना हो क्यूँकि ब्राह्मण संयासी या मुनि को कष्ट देने वाला राजा भस्म हो जाता है और पाप का भागी बनता है।
प्रभु के कोमल मधुर और सम्मानजनक शब्दों को सुनकर बाल्मीकि ने जो उत्तर दिया वो अपने आप में शिक्षा का भंडार है बस जरूरत है तो समझने और जीवन में उतारने की।
बाल्मीकि ने प्रभु से कहा आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं देवताओं के कार्य हेतु जनम लिया है और महान कार्यहेतु वनवास पर हैं।
राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।
हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका 'नेति-नेति' कहकर वर्णन करते हैं।
आगे बाल्मीकि जी कहते ब्रह्म विष्णु महेश भी आपके मर्म को नहीं समझ पाए। आप इस जगत के पालनहार हैं आपको वही जान सकता है जिसपर आपकी विशेष कृपा होती है।
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥
बाल्मीकि बोले कौन सा स्थान दिखाऊँ? आप मुझसे पूछ रहे हैं कि रहने योग्य स्थान बताइए। मैं संकोच कर रहा हूं पूछने में कि ऐसी कौन सी जगह है जहां आप नहीं वो स्थान बताएं।
बाल्मीकि ने अपनी उत्तम बुद्धि और श्रेष्ठ ज्ञान का परिचय यहां दिया है। वे भलीभांति समझते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम राम को, राम की कृपा और चरित्र को। और ये भी समझते हैं कि किस तरह के मनुष्यों को प्रभु कृपा मिलनी चाहिए।
मुनी मुस्कुराकर कहते हैं कि अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जो कान निरंतर आपकी सुंदर कथा सुनते हैं परन्तु कभी तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं। जो आपके दर्शन रूपी मेघों के लिए चातकों की भांति ध्यानरत रहते हैं उनके नेत्र आपके रहने योग्य हैं।
जो आपके सुंदर रूप के दर्शन के आगे स्वर्ग पृथ्वी के तमाम सुख त्याग दें ऐसे हृदय रूपी विशाल भवनों में आप सदा वास किजिए।
जिनका मुख जिव्हा हमेशा आपके गुणों का वर्णन करे और जिनकी नासिका सदैव आपके प्रसाद की सुगंध ग्रहण करे, आपको भोजन और वस्त्र अर्पण कर स्वयं प्रसाद स्वरूप धारण करे आप ऐसे हृदय में बसें राम। जो मर्यादा का पालन करें, सत्य की राह पर चले और जिनका शीश गुरु तथा ब्राह्मण के आगे प्रसन्नता पूर्वक झुके, जो नित्य परिवार सहित आपकी पूजा करें और आपको ही सर्वस्व माने। जिनके हाथ आपके चरणों की पूजा करें जिनके हृदय में श्री प्रभु आपका ही भरोसा है, दूसरा नहीं ऐसे हृदय और ऐसे लोगों के घर में आप निवास करें। जहां हवन दान हों और ब्राह्मण भोजन कराया जाता हो और गुरु को आपसे भी बड़ा मानकर सम्मान दिया जाता हो। और ये सब कर्म करके सबका एक मात्र यही फल माँगते हैं कि श्री राम के चरणों में हमारी प्रीति हो, उन लोगों के मन रूपी भवन में आप सीताजी सहित निवास करें।
जहां काम, क्रोध, मद, अभिमान, मोह, लोभ, द्वेष, कपट, और छल ना हो और जो जाती कुल प्रेम परिवार सब को छोड़ केवल आपको हृदय में धारण करते हों उनके हृदय में निवास कीजिए।
जो सबका हित करने वाले, और जो हर स्थति में सत्य और प्रिय वचन बोलते हों। जहां सदैव समान मनोभाव से आपका स्मरण हो, जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें नहीं भाता हो ऐसे मन में आप निवास किजिये।
जो आपको प्राणों से अधिक प्रेम करते हों और जो दूसरों के दुख में दुखी हों। जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं,जो केवल सबके गुणों को ग्रहण करते हैं और जिनका शरीर गाय और ब्राह्मण की रक्षा के लिए कष्ट सहे। ऐसे मन आपके रहने योग्य हैं। जो सारे गुण आपके और दोष स्वयं के समझे और जिसे राम भक्त प्रिय हों ऐसे मन आपका निवास स्थान है।
एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥
इस प्रकार मुनि ने प्रभू को कई रहने लायक स्थान बताए। भगवान के मन को ऐसे प्रिय बचन बहुत भाये ।
फिर बाल्मीकि जी भगवान से बोले अब मैं इस समय के लिए सुखदायक निवास बताता हूँ, बाल्मीकि जी ने चित्रकूट पर्वत के वातावरण का वर्णन किया और कहा वहां सब प्रकार की सुविधा है। आप चित्रकूट पर्वत पर निवास किजिये। तब प्रभू ने माता जानकी और लक्ष्मण सहित पवित्र गंगा (मंदाकिनी) में स्नान किया और वहा चित्रकूट को निवास स्थान बनाया।
इस प्रकार बाल्मीकि ने अपने बुद्धि कौशल और पवित्र हृदय का परिचय देते हुए भगवान की प्रशंसा करते हुए उनको निवास स्थान बताया और साथ ही मनुष्यों के लिए शिक्षाप्रद बातें इस संवाद द्वारा बताई कि जिनको भगवान को पाना है उनको क्या करना चाहिए, कैसे कर्म करने चाहिए।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में ही कहा है...
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
अर्थात जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।
प्रभु को पाना है तो मन निर्मल सहज और सरल करना ही पड़ेगा। तब भगवान स्वयं चलकर दर्शन देने आएंगे जैसे दर्शन दिए बाल्मीकि को, और बाल्मीकि आदि कवि बनकर रामायण की रचना की। जैसे दर्शन दिए तुलसीदास को और उन्होने रचना कर दी रामचरितमानस की।
कौन जाने प्रभु किस रूप में कब दर्शन देने आएं, हम उनके रहने योग्य स्थान तो बनाएं...।
जय श्री राम !
... Durga
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस के अयोध्याकांड में एक बड़ा सुन्दर प्रसंग आता है श्री राम-वाल्मीकि संवाद। अपने वनवास काल के मध्य श्री राम वाल्मीक ऋषि के आश्रम में भी गये थे। इससे यह बात स्पष्ट है कि बाल्मीकि राम के समकालीन थे इसलिए राम के जीवन की हर घटना का ज्ञान उनको था।
श्री राम पिता की आज्ञा से वनवास सहर्ष स्वीकार कर , माता जानकी और लक्ष्मण सहित बाल्मीकि आश्रम पहुचे।
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥
प्रभु का मन आश्रम आते समय जो जो सुन्दर दृश्य देखे थे उस से बहुत प्रसन्न था। सुन्दर फूल,पहाड़ और शीतल निर्मल जल देखकर माता सीता और लक्ष्मण भी बहुत आराम महसूस कर रहे थे। वहां विभिन्न प्रकार के पशु पक्षी बिना बैर भाव विचरण कर रहे थे। चारों ओर प्रसन्न और सुगंधित वातावरण था।
प्रभु के आगमन का संदेश सुनते ही मुनि बाल्मीकि उनको लेने पहुचें। भगवान के दर्शन पाकर मुनि बाल्मीकि के ह्रदय और नेत्र शीतल हुए। राम दंडवत प्रणाम करते हैं और बाल्मीकि आशीर्वाद देते हैं। कितने सहज सरल हैं प्रभु कितने मर्यादित। किसके नेत्र शीतल ना हों प्रभु की इस निर्मल छवि देख कर।
बाल्मीकि जी ने उन्हें कंद,मूल फल खाने को दिए तत्पश्चात उनको विश्राम करने के लिए सुंदर स्थान बताया। यहां से अतिआनंद दायक बाल्मीकि राम का संवाद आरंभ होता है। राम और बाल्मीकि दोनों ही महान, त्रिकालदर्शी हैं, दोनों एक दूसरे को जानते हैं लेकिन दोनों कितने सरल और मृदुभाषी हैं कि एक दूसरे को सुंदर वचनों में प्रसंशा कर रहे हैं।
बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥
मुनि श्री रामजी के पास बैठे हैं और उनकी सुंदर छवि नेत्रों से देखकर बाल्मीकि जी को आनंद प्राप्त हो रहा है। तब श्री रघुनंदन कमल सदृष्य हाथों को जोड़कर, कानों को आनंदित करने वाले मधुर वचन कहे। हे मुनिनाथ आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। फिर प्रभु ने वनवास होने की कथा विस्तार से बताई। राम बोले हे मुनिराज आज आपके चरणों के दर्शन हो गए, हमारे पुण्य सफल हो गए। अब आप हमें वो स्थान रहने को बताइए जहां से किसी ब्राह्मण या मुनि को कष्ट ना हो क्यूँकि ब्राह्मण संयासी या मुनि को कष्ट देने वाला राजा भस्म हो जाता है और पाप का भागी बनता है।
प्रभु के कोमल मधुर और सम्मानजनक शब्दों को सुनकर बाल्मीकि ने जो उत्तर दिया वो अपने आप में शिक्षा का भंडार है बस जरूरत है तो समझने और जीवन में उतारने की।
बाल्मीकि ने प्रभु से कहा आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं देवताओं के कार्य हेतु जनम लिया है और महान कार्यहेतु वनवास पर हैं।
राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।
हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका 'नेति-नेति' कहकर वर्णन करते हैं।
आगे बाल्मीकि जी कहते ब्रह्म विष्णु महेश भी आपके मर्म को नहीं समझ पाए। आप इस जगत के पालनहार हैं आपको वही जान सकता है जिसपर आपकी विशेष कृपा होती है।
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥
बाल्मीकि बोले कौन सा स्थान दिखाऊँ? आप मुझसे पूछ रहे हैं कि रहने योग्य स्थान बताइए। मैं संकोच कर रहा हूं पूछने में कि ऐसी कौन सी जगह है जहां आप नहीं वो स्थान बताएं।
बाल्मीकि ने अपनी उत्तम बुद्धि और श्रेष्ठ ज्ञान का परिचय यहां दिया है। वे भलीभांति समझते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम राम को, राम की कृपा और चरित्र को। और ये भी समझते हैं कि किस तरह के मनुष्यों को प्रभु कृपा मिलनी चाहिए।
मुनी मुस्कुराकर कहते हैं कि अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जो कान निरंतर आपकी सुंदर कथा सुनते हैं परन्तु कभी तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं। जो आपके दर्शन रूपी मेघों के लिए चातकों की भांति ध्यानरत रहते हैं उनके नेत्र आपके रहने योग्य हैं।
जो आपके सुंदर रूप के दर्शन के आगे स्वर्ग पृथ्वी के तमाम सुख त्याग दें ऐसे हृदय रूपी विशाल भवनों में आप सदा वास किजिए।
जिनका मुख जिव्हा हमेशा आपके गुणों का वर्णन करे और जिनकी नासिका सदैव आपके प्रसाद की सुगंध ग्रहण करे, आपको भोजन और वस्त्र अर्पण कर स्वयं प्रसाद स्वरूप धारण करे आप ऐसे हृदय में बसें राम। जो मर्यादा का पालन करें, सत्य की राह पर चले और जिनका शीश गुरु तथा ब्राह्मण के आगे प्रसन्नता पूर्वक झुके, जो नित्य परिवार सहित आपकी पूजा करें और आपको ही सर्वस्व माने। जिनके हाथ आपके चरणों की पूजा करें जिनके हृदय में श्री प्रभु आपका ही भरोसा है, दूसरा नहीं ऐसे हृदय और ऐसे लोगों के घर में आप निवास करें। जहां हवन दान हों और ब्राह्मण भोजन कराया जाता हो और गुरु को आपसे भी बड़ा मानकर सम्मान दिया जाता हो। और ये सब कर्म करके सबका एक मात्र यही फल माँगते हैं कि श्री राम के चरणों में हमारी प्रीति हो, उन लोगों के मन रूपी भवन में आप सीताजी सहित निवास करें।
जहां काम, क्रोध, मद, अभिमान, मोह, लोभ, द्वेष, कपट, और छल ना हो और जो जाती कुल प्रेम परिवार सब को छोड़ केवल आपको हृदय में धारण करते हों उनके हृदय में निवास कीजिए।
जो सबका हित करने वाले, और जो हर स्थति में सत्य और प्रिय वचन बोलते हों। जहां सदैव समान मनोभाव से आपका स्मरण हो, जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें नहीं भाता हो ऐसे मन में आप निवास किजिये।
जो आपको प्राणों से अधिक प्रेम करते हों और जो दूसरों के दुख में दुखी हों। जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं,जो केवल सबके गुणों को ग्रहण करते हैं और जिनका शरीर गाय और ब्राह्मण की रक्षा के लिए कष्ट सहे। ऐसे मन आपके रहने योग्य हैं। जो सारे गुण आपके और दोष स्वयं के समझे और जिसे राम भक्त प्रिय हों ऐसे मन आपका निवास स्थान है।
एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥
इस प्रकार मुनि ने प्रभू को कई रहने लायक स्थान बताए। भगवान के मन को ऐसे प्रिय बचन बहुत भाये ।
फिर बाल्मीकि जी भगवान से बोले अब मैं इस समय के लिए सुखदायक निवास बताता हूँ, बाल्मीकि जी ने चित्रकूट पर्वत के वातावरण का वर्णन किया और कहा वहां सब प्रकार की सुविधा है। आप चित्रकूट पर्वत पर निवास किजिये। तब प्रभू ने माता जानकी और लक्ष्मण सहित पवित्र गंगा (मंदाकिनी) में स्नान किया और वहा चित्रकूट को निवास स्थान बनाया।
इस प्रकार बाल्मीकि ने अपने बुद्धि कौशल और पवित्र हृदय का परिचय देते हुए भगवान की प्रशंसा करते हुए उनको निवास स्थान बताया और साथ ही मनुष्यों के लिए शिक्षाप्रद बातें इस संवाद द्वारा बताई कि जिनको भगवान को पाना है उनको क्या करना चाहिए, कैसे कर्म करने चाहिए।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में ही कहा है...
अर्थात जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।
प्रभु को पाना है तो मन निर्मल सहज और सरल करना ही पड़ेगा। तब भगवान स्वयं चलकर दर्शन देने आएंगे जैसे दर्शन दिए बाल्मीकि को, और बाल्मीकि आदि कवि बनकर रामायण की रचना की। जैसे दर्शन दिए तुलसीदास को और उन्होने रचना कर दी रामचरितमानस की।
कौन जाने प्रभु किस रूप में कब दर्शन देने आएं, हम उनके रहने योग्य स्थान तो बनाएं...।
जय श्री राम !
... Durga
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