अग्नि त्रेतायुग की
एक अग्नि प्रज्वलित हुई थी त्रेता युग में...
कोई यज्ञ की अग्नि नहीं थी...
और ना ही थी किसी प्रकाश पुंज से प्रकाश हेतु निकली अग्नि...
ना ही थी अक्षम्य अपराध के लिए दंड स्वरूप लगाई गई आग...
ये अग्नि की ज्वाला थी परीक्षा के लिए उत्पन्न की गई...
एक नारी के स्वाभिमान को चूर करने का असफल प्रयास...
किसने किया था प्रश्न...
किसने लगाई आग...
राम तुमने?...
नहीं नहीं तुमने नहीं..
तुम स्वयं नारायण...
मर्यादा पुरुषोत्तम...
नहीं नहीं तुमने कदापि नहीं...
परन्तु राम उस अग्नि परीक्षा की आग इस कलयुग तक शान्त नहीं हो पाई...
उस आग को हवा देने वाले जीवित हैं...
असल में ये परीक्षा सीता की थी ही नहीं..
ये परीक्षा तो थी समाज में मौजूद तुच्छ मस्तिष्क वालों की...
जो अपने मस्तिष्क की गन्दगी को मारते हैं साफ दामन पर...
और चकना चूर कर देना चाहते हैं किसी भी नारी का आत्मसम्मान...
लेकिन राम सीता ना तब हारी थी ना आज हारती है...
क्योंकि जो अग्नि परीक्षा के कारक थे...
वही दोषी थे...
ये उन्हीं की परीक्षा थी तब भी...
आज भी...
कोई यज्ञ की अग्नि नहीं थी...
और ना ही थी किसी प्रकाश पुंज से प्रकाश हेतु निकली अग्नि...
ना ही थी अक्षम्य अपराध के लिए दंड स्वरूप लगाई गई आग...
ये अग्नि की ज्वाला थी परीक्षा के लिए उत्पन्न की गई...
एक नारी के स्वाभिमान को चूर करने का असफल प्रयास...
किसने किया था प्रश्न...
किसने लगाई आग...
राम तुमने?...
नहीं नहीं तुमने नहीं..
तुम स्वयं नारायण...
मर्यादा पुरुषोत्तम...
नहीं नहीं तुमने कदापि नहीं...
परन्तु राम उस अग्नि परीक्षा की आग इस कलयुग तक शान्त नहीं हो पाई...
उस आग को हवा देने वाले जीवित हैं...
असल में ये परीक्षा सीता की थी ही नहीं..
ये परीक्षा तो थी समाज में मौजूद तुच्छ मस्तिष्क वालों की...
जो अपने मस्तिष्क की गन्दगी को मारते हैं साफ दामन पर...
और चकना चूर कर देना चाहते हैं किसी भी नारी का आत्मसम्मान...
लेकिन राम सीता ना तब हारी थी ना आज हारती है...
क्योंकि जो अग्नि परीक्षा के कारक थे...
वही दोषी थे...
ये उन्हीं की परीक्षा थी तब भी...
आज भी...
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