हर हर
देश काल वस्तु रूपी परिछेद से रहित..
सातों स्वरों में निवास करने वाले...
शून्य से परे,शाश्वत ...
हे महादेव, देख रहे हो ना जीवन का व्यथित होना ...
देख रहे हो ना आत्मा का परमात्मा से विलग होना...
हे आनंद स्वरूप अशांत होती पृथ्वी और अशांत जीवों को देख रहे हो ना...
शीश पर चंद्र धारण करने वाले हे शशिशेखर...
क्या महसूस कर रहे हो उस उष्मा को जो मनुष्य के ह्रदय में बसने वाले स्नेह को भष्म करने पर आतुर है...
क्या सुनाई दे रही है तुम्हे निर्दोषों की पीडा के स्वर जो शायद तुम्हारे डमरू से अधिक ऊंचे स्वर में गूंज रहे हैं, हे डमरूधर...
विषैले सर्पों को तुम नित्य धारण करते तो हो हे भुजंगभूषण...
लेकिन क्या वो इस पृथ्वी पर बसे मनुष्यों से अधिक कुटिल, विषैले हैं...
हे कामारी, अब कामान्ध हो चुके नर नारी, मर्यादा का अब भान कहां ...
तुम्हें दिखता तो होगा ना हे सहस्राक्ष...
सुनाई तो देता होगा ना, गंगा का करूण रुदन, हे गंगाधर...
हे पिनाक,प्रशस्त, शूलपाणी करो फिर गर्जना हे रुद्र...
करो नृत्य फिर से हे नटराज...
हर लो सब पाप, संताप हे हरी रूप.. हर, हर
सातों स्वरों में निवास करने वाले...
शून्य से परे,शाश्वत ...
हे महादेव, देख रहे हो ना जीवन का व्यथित होना ...
देख रहे हो ना आत्मा का परमात्मा से विलग होना...
हे आनंद स्वरूप अशांत होती पृथ्वी और अशांत जीवों को देख रहे हो ना...
शीश पर चंद्र धारण करने वाले हे शशिशेखर...
क्या महसूस कर रहे हो उस उष्मा को जो मनुष्य के ह्रदय में बसने वाले स्नेह को भष्म करने पर आतुर है...
क्या सुनाई दे रही है तुम्हे निर्दोषों की पीडा के स्वर जो शायद तुम्हारे डमरू से अधिक ऊंचे स्वर में गूंज रहे हैं, हे डमरूधर...
विषैले सर्पों को तुम नित्य धारण करते तो हो हे भुजंगभूषण...
लेकिन क्या वो इस पृथ्वी पर बसे मनुष्यों से अधिक कुटिल, विषैले हैं...
तुमने तो विष पीकर कंठ में धारण किया परोपकार के हित, तब नील कंठ कहलाए...
पर स्वार्थ मे लिप्त धरतीवासी इतना विष पी रहे कि हृदय रंगहीन हो चुके हैं...हे कामारी, अब कामान्ध हो चुके नर नारी, मर्यादा का अब भान कहां ...
तुम्हें दिखता तो होगा ना हे सहस्राक्ष...
सुनाई तो देता होगा ना, गंगा का करूण रुदन, हे गंगाधर...
हे पिनाक,प्रशस्त, शूलपाणी करो फिर गर्जना हे रुद्र...
करो नृत्य फिर से हे नटराज...
हर लो सब पाप, संताप हे हरी रूप.. हर, हर
... Durga
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