खत्म होता बचपन

एक हम थे कि स्कूल से लंच टाइम में भी मार्केट जा के टॉफ़ी, अमियां ले के खाते हुए वापस स्कूल पहुंच जाते थे ब्रेक खत्म होने से पहले! और एक आजकल का टाइम है कि स्कूल में कब बच्चा पहुंचा, कब छुट्टी में निकला स्कूल से सब जानकारी मोबाइल पर मैसेज से आ जाती है! इतना होने के बाद भी बच्चे सुरक्षित हैं नहीं! जरूरी भी है आजकल के दूषित माहोल के हिसाब से! आखिर आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है! मगर सोचने की बात ये है कि कोई ऐसे कारण भी हैं क्या जो जबर्दस्ती के थोपे हैं हमने खुद के दिमाग पर, और बचपन खोने लगा है वक़्त से पहले!

आजकल के बच्चों को देखकर लगता है कि स्कूल नहीं किसी प्रोफेशनल एक्टिविटी के लिए जा रहे हैं! बच्चों के  बचपन में बचपना उतना रह नहीं गया जितना होना चाहिए! तमाम तरह की बंदिसे,कई तरह के डर सब मिलाकर बचपन चोरी हो चुका है! वर्गों में बांटा गया हमारा समाज ख़ुद को दूसरे वर्ग से सभ्य बताते लोग सभी तो दोषी हैं! पढ़ाई का बोझ और फिर जबर्दस्ती अपने सपने उनसे पूरे करवाने का जुनून ये भी तो बचपन चुराने का दोषी है! अमीरों की सोसाइटी का घमंड और गरीबों की सोसाइटी की मजबूरी यही समस्या है! हम जब छोटे थे तो भेद भाव गरीब अमीर का इतना नहीं देखा, हमें तो समझ भी नहीं आता था कि अमीरी क्या गरीबी क्या!

सब मशीनी चीज़ों की जानकारी आवश्यक है बच्चों के लिए और बड़ों के लिए भी मगर एक संतुलन बनाए रखना भी जरूरी है! कहीं हमारे अंदर के सामाजिक डर की वजह से बच्चे इंसान की जगह केवल मशीन बनकर ना रह जाएं! परेशानी को कम करने की जगह बढ़ा तो नहीं रहे हम लोग? डर से मुकाबला करवाना है तो खुद समय के साथ परिपक्व होने दें! बचपन छीन कर ज़िन्दगी की कीमत कम ना करें!

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