दिसंबर


ओ दिसंबर
अब तुम आते तो हो
शोर बहुत मचाते हो
लेकिन
ठंड के साथ
पहले सी रौनक नहीं लाते!
पतझड़ के पीले पत्तों की
जमीन पर बहार नहीं लाते
बर्फ से चमकती
सुबह और रात नहीं लाते
तुम बदले, जमाना बदल गया!
अब नहीं जलती
एक जगह पड़ोस में
सबके लिए अंगीठी
अंगीठी बुझने तक बातों का सिलसिला
अब नहीं चलता!
अब नहीं आती चाय में वो महक
जो आग के पास बैठकर
कहानियां सुनने सुनाने में आती थी!
अब लोगों के दिलों से
तुम भी आते हो खाली हाथ!
ओ दिसंबर
अबके आओ जब
तो ले आना साथ अपने
बर्फ में खुशियां लपेट कर
पहले सी अपनेपन वाली ठंड ले आना
और ले आना गुनगुनी धूप
आँखों में चमकने वाली!

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